पटना महानगर जदयू के अध्यक्ष मो0 आसिफ कमाल की अध्यक्षता में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी शहीद जुब्बा सहनी की पुण्यतिथि मनाई गई।
पटना महानगर जदयू के अध्यक्ष मो0 आसिफ कमाल की अध्यक्षता में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी शहीद जुब्बा सहनी की पुण्यतिथि मनाई गई।
पटना सिटी:पटना महानगर जदयू के अध्यक्ष मो0 आसिफ कमाल की अध्यक्षता में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी शहीद जुब्बा सहनी की पुण्यतिथि मनाई गई। एवं मुख्य अतिथि के रूप में पूर्व प्रवक्ता सह अत्यंत पिछड़ा आयोग के सदस्य अरविंद निषाद उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में उपस्थित समता पार्टी के समय से कार्य करते चले आ रहे हैं जदयू के वरिष्ठ नेता गुड्डू पाठक,अंजनी पटेल, अनंत अरोड़ा, राजकुमार पटेल,साधु भगत,समता पार्टी के समय से कार्य करते चले आ रहे हैं जदयू के वरिष्ठ नेता सनोवर खान,जदयू के वरिष्ठ नेता भोला प्रसाद अम्बष्ठ,जदयू युवा नेता रवि विष्वकर्मा,आदि जदयू नेता मौजूद थे। संचालन विक्की निषाद ने किया। पटना महानगर जदयू के अध्यक्ष मो0 आसिफ कमाल ने कहा कि जुब्बा साहनी का जन्म 1906 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिला के मीनापुर थाने के अंतर्गत चैनपुर बस्ती के अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। उनका नाम बिहार के अग्रगण्य स्चतंत्रता सेनानियों में शुमार है। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जुब्बा साहनी ने 16 अगस्त 1942 को मीनापुर थाने के अंग्रेज इंचार्ज लियो वालर को आग में जिंदा झोंक दिया था। बाद में पकड़े जाने पर उन्हें 11 मार्च 1944 को फांसी दे दी गयी। उनके नाम पर मुजफ्फरपुर शहर में जुब्बा साहनी खेल स्टेडियम तथा पार्क बना है जो दर्शनीय है।दूसरी ओर पूर्व प्रवक्ता सह अत्यंत पिछड़ा आयोग के सदस्य अरविंद निषाद ने कहा कि दारोगा वालर को मैंने मारा… फांसी मुझे दी जाए, जुब्बा सहनी ने शहीद होकर बचाई थी साथियों की जान खुद के लिए फांसी मांग मुजफ्फरपुर के मीनापुर निवासी जुब्बा सहनी ने बचाई थी साथियों की जान। क्रांतिकारी बांगुर सहनी की मौत के बाद आक्रोशित हो गई थी भीड़ अंग्रेज दारोगा को जला दिया था जिंदा।
वालर को मैंने मारा है… और किसी ने नहीं। ये सभी लोग निर्दोष हैं। फांसी मुझे दी जाए और हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए। अपनी जान देकर साथियों की जान बचा ली थी। कुछ ऐसे थे मीनापुर के जुब्बा सहनी। उनके बलिदान की कहानी उस वक्त की है, जब अंग्रेजों की बर्बरता बड़े शहरों से होकर गांवों तक पहुंच चुकी थी। देश में करो या मरो का जज्बा था। आजादी की लड़ाई के ऐसे नायक, जिनकी दिलेरी के किस्से सुन-पढ़कर पीढिय़ां धन्य हो जाती हैं।
16 अगस्त, 1942 की घटना
भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में मुजफ्फरपुर में शहर से गांव तक आंदोलनकारी एकजुट होकर मोर्चा संभाले हुए थे। करो या मरो के नारे के बाद आंदोलन की तीव्रता और बढ़ गई थी। जुब्बा रघई कोठी में नौकरी करते थे। वे आंदोलनकारियों के संवाहक थे
रघई कोठी पर क्रांतिकारियों ने बैठक कर अंग्रेजी झंडा उतारकर भारतीय झंडा फहराने का निर्णय लिया। इसके लिए 16 अगस्त, 1942 की तिथि तय की गई थी। तय समय पर लोग थाने के पास जुटने लगे।
इसकी भनक तत्कालीन दारोगा एम. वालर को लग गई। उसने आंदोलनकारियों से निपटने की तैयारी कर ली थी। आसपास के कुछ लठैत और बदमाशों को भी जमा कर रखा था। हालांकि, क्रांतिकारियों के जोश के आगे उनकी नहीं चल पा रही थी। इतने में वालर ने पिस्टल से गोली चला दी। सबसे आगे जुब्बा के भाई बांगुर सहनी थे। गोली उनके सीने में लगी। भाई का बलिदान जुब्बा के लिए असहनीय था। उन्होंने बदला लेने की ठान ली।
थाने में फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़क लगा दी आग
घटना के बाद लोगों ने वालर की खोज शुरू की। वह थाने के पीछे सनई के खेत में जाकर छिप गया था। जुब्बा उसके पीछे दौड़े। उनके पीछे-पीछे गांव वाले थे। वालर वहीं पकड़ा गया। जमकर पिटाई के बाद उसे लाठी और बेल्ट के सहारे टांगकर थाने में लाया गया। वहां मौजूद फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़ककर उसे जिंदा जला दिया गया। यह घटना आग की तरह फैल गई।
जांच की प्रक्रिया आगे बढ़ी। सेशन ट्रायल के दौरान जज घटना में शामिल लोगों के नाम बताने के लिए जुब्बा सहनी पर दबाव बनाने लगा। इसके बदले आम माफी दिए जाने की पेशकश की गई। जुब्बा को यह प्रस्ताव नहीं भाया, उन्होंने भरी अदालत में कहा, वालर को मैंने मारा है और किसी ने नहीं। अंतत: उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 11 मार्च, 1944 को भागलपुर जेल में फांसी दे दी गई थी।
वे आंदोलनकारियों के संवाहक थे। रघई कोठी पर क्रांतिकारियों ने बैठक कर अंग्रेजी झंडा उतारकर भारतीय झंडा फहराने का निर्णय लिया। इसके लिए 16 अगस्त, 1942 की तिथि तय की गई थी। तय समय पर लोग थाने के पास जुटने लगे।
इसकी भनक तत्कालीन दारोगा एम. वालर को लग गई। उसने आंदोलनकारियों से निपटने की तैयारी कर ली थी। आसपास के कुछ लठैत और बदमाशों को भी जमा कर रखा था। हालांकि, क्रांतिकारियों के जोश के आगे उनकी नहीं चल पा रही थी। इतने में वालर ने पिस्टल से गोली चला दी। सबसे आगे जुब्बा के भाई बांगुर सहनी थे। गोली उनके सीने में लगी। भाई का बलिदान जुब्बा के लिए असहनीय था। उन्होंने बदला लेने की ठान ली।
थाने में फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़क लगा दी आग
घटना के बाद लोगों ने वालर की खोज शुरू की। वह थाने के पीछे सनई के खेत में जाकर छिप गया था। जुब्बा उसके पीछे दौड़े। उनके पीछे-पीछे गांव वाले थे। वालर वहीं पकड़ा गया। जमकर पिटाई के बाद उसे लाठी और बेल्ट के सहारे टांगकर थाने में लाया गया। वहां मौजूद फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़ककर उसे जिंदा जला दिया गया। यह घटना आग की तरह फैल गई।
जांच की प्रक्रिया आगे बढ़ी। सेशन ट्रायल के दौरान जज घटना में शामिल लोगों के नाम बताने के लिए जुब्बा सहनी पर दबाव बनाने लगा। इसके बदले आम माफी दिए जाने की पेशकश की गई। जुब्बा को यह प्रस्ताव नहीं भाया, उन्होंने भरी अदालत में कहा, वालर को मैंने मारा है और किसी ने नहीं। अंतत: उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 11 मार्च, 1944 को भागलपुर जेल में फांसी दे दी गई थी।
स्मारक याद दिलाती है घटना
बलिदानी जुब्बा सहनी व उनके भाई की कई वर्षों तक उपेक्षा होती रही। उनके नाम का कोई स्मारक नहीं था, जबकि मीनापुर में थाने के सामने वालर की प्रतिमा लगी थी। यह अंग्रेजों की दासता की हमेशा याद दिलानी थी। बाद में स्थानीय लोगों ने इस प्रतिमा को तोड़ दिया। फिर थाने के गेट के सामने बांगुर सहनी की प्रतिमा लगाई गई, जब कि जुब्बा सहनी की मानिकपुर में स्थापित की गई।